गीता प्रेस, गोरखपुर >> प्रेम का सच्चा स्वरूप प्रेम का सच्चा स्वरूपजयदयाल गोयन्दका
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प्रेमका सच्चा स्वरूप और शोकनाश के उपाय का मार्मिक प्रस्तुति।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
प्रेम का सच्चा स्वरूप
आज परम दयालु परमात्मा की कृपा से प्रेम के सम्बन्ध में कुछ लिखने का साहस
कर रहा हूं। यद्यपि मैं इस विषय में अपने को असमर्थ समझता हूँ, क्योंकि
प्रेम की वास्तविक महिमा पर वही पुरुष कुछ लिख सकते है जो पवित्रतम
भगवत्-प्रेम के रस समुद्र में निमग्र हो चुके हों। प्रेम का विषय इतना गहन
है कल्पनातीत है कि जिसकी तहतक विज्ञान और ज्ञानी तक नहीं पहुँच सकते, फिर
वाणी औऱ लेखनी की तो बात ही कौन-सी है ?
शेष, महेश, गणेश एवं शुकदेव तथा नारद आदि जो भगवान के प्रेमियों में सर्वशिरोमणि समझे जाते हैं, वे भी जब प्रेमतत्व का सम्यक वर्णन करने में अपने को असमर्थ पाते हैं, तब मुझ-जैसा साधारण मनुष्य तो किस गितनी में है ? अन्तः करण में जब प्रेम-रस की बाढ आती है
तब मनुष्य के सम्पूर्ण अंग पुलकित हो उठते है; हृदय प्रफुल्लित हो जाता है। वाणी रुक जाती है और नेत्रों से आशुओँ की अजस्त्र धारा बहने लगती है शास्त्र और प्रेमी महात्माओं का ऐसा ही कथन है और अनुभव है परन्तु यह सब प्रेम के बाहरी चिन्ह हैं, इसी से इनका भी वर्णन किया जा सकता है
हृदय में प्रेम का समुद्र उमड़ आने पर प्रेमी उसमें डूब जाता है उस अवस्था का वर्णन तो वह स्वयं भी नहीं कर सकता, फिर दूसरे की तो सामर्थ ही क्या है ? श्रीराम औऱ भरत के प्रेम मिलन के प्रसंग में गोसाईं जी महाराज अपनी असमर्थता प्रकट करते हुए कहते है-
शेष, महेश, गणेश एवं शुकदेव तथा नारद आदि जो भगवान के प्रेमियों में सर्वशिरोमणि समझे जाते हैं, वे भी जब प्रेमतत्व का सम्यक वर्णन करने में अपने को असमर्थ पाते हैं, तब मुझ-जैसा साधारण मनुष्य तो किस गितनी में है ? अन्तः करण में जब प्रेम-रस की बाढ आती है
तब मनुष्य के सम्पूर्ण अंग पुलकित हो उठते है; हृदय प्रफुल्लित हो जाता है। वाणी रुक जाती है और नेत्रों से आशुओँ की अजस्त्र धारा बहने लगती है शास्त्र और प्रेमी महात्माओं का ऐसा ही कथन है और अनुभव है परन्तु यह सब प्रेम के बाहरी चिन्ह हैं, इसी से इनका भी वर्णन किया जा सकता है
हृदय में प्रेम का समुद्र उमड़ आने पर प्रेमी उसमें डूब जाता है उस अवस्था का वर्णन तो वह स्वयं भी नहीं कर सकता, फिर दूसरे की तो सामर्थ ही क्या है ? श्रीराम औऱ भरत के प्रेम मिलन के प्रसंग में गोसाईं जी महाराज अपनी असमर्थता प्रकट करते हुए कहते है-
कहहु सुपेम प्रकट को करई।
केहि छाया कबि मति अनुसरई।।
कबिहि अरथ आखर बलु सांचा।
अनुहरि ताल गतिहि नटु नाचा।।
केहि छाया कबि मति अनुसरई।।
कबिहि अरथ आखर बलु सांचा।
अनुहरि ताल गतिहि नटु नाचा।।
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